Thursday, December 26, 2013

मेरी ज़िन्दगी की सांता

ज़िन्दगी के सफ़र में कुछ अज़ीज़ों का साथ छूट जाता है… 
लेकिन उनकी याद ताउम्र दिल में भीनी खुशबु की तरह ज़िंदा रहती है… 

आँखें बंद करते ही, मन कि किताब का वह पन्ना झट से खुल जाता है,
जहाँ उनके साथ बिताये पल यादें बनकर खूबसूरत इबारत में दर्ज रहती है.। 

मुझे जब भी उन अज़ीज़ों से मिलना होता है तो मैं चुपके से आँखें बंद करके,
उनके साथ जिया हुआ वक़्त दोबारा जी लेती हूँ.. 
और उनकी यादों कि खुशबु को अपनी साँसों में भर लेती हूँ.। 

वो भी तो किसी भीनी खुशबु से कम नहीं थी. उसके रहते ज़िन्दगी में हमेशा बहार रहती थी।  
उससे लड़ना झगड़ना तो चलता रहता था, लेकिन प्यार इतना था कि उसके बिना भी कभी रहना होगा ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती थी।  

वो मेरी ज़िन्दगी में सांता से कम नहीं थी।  ख्वाहिशें छोटी हों या बड़ी, उन्हें पूरी करके ही दम लेती थी वो।  
लेकिन एक दिन अचानक वो चली गई।  अफ़सोस ये है कि बिना कुछ कहे चली गई।  

उस दिन के बाद से मेरी कई ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं।  अब वो कभी नहीं आती, 25 दिसम्बर को भी नहीं। लेकिन मैं आँखें बंद करके उसकी भीनी खुशबु खुद में भर लेती हूँ, ताकि उसके होने का एहसास मेरे इर्द गिर्द बना रहे।  

वो मेरी ज़िन्दगी की सांता, वो मेरी बड़ी बहन ....  

Sunday, December 15, 2013

बेलगाम ख्वाहिशें

छोटी छोटी ख्वाहिशें कब बड़ी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता.... 
पहले दोस्तों के साथ गन्ने का रस पीने जाना लक्ज़री हुआ करती थी, अब सीसीडी, पिज़्ज़ा हट और डोमिनोज़ जाकर भी मन नहीं भरता ... 
पहले हॉल में पिक्चर देखने को मिलती थी तो खुश हो जाते थे, अब मल्टीप्लेक्स के अलावा कहीं जाने का मन नहीं करता... 
पहले साल में सिर्फ दुर्गा पूजा पर नए कपडे मिलते थे, अब तो दो बार पहनने के बाद ही नया कपडा पुराना लगने लगता है...
इन ख्वाहिशों पर कोई लगाम नहीं है और बेलगाम ख्वाहिशें पूरी हो भी जाएं तो भी दिल में सुकून नहीं है। दरअसल अब मन किसी चीज़ से नहीं भरता और सब चीज़ों से भर भी गया है। ये दौर बड़ा अजीब है, हमें सब चाहिए और ये भी नहीं पता कि आखिर तलाश किस चीज़ की है?
ये अंधी तलाश कई लोगों  के लिए लक्ष्य बन जाती है तो कुछ लोगों को अँधेरे कि गर्त में ले जाती है।  बचपन के साथ जो चीज़ खो जाती है उनमे सुकून, मस्तमौलापन, बेफिक्री और असली ख़ुशी भी शामिल होती है.… 

Friday, December 6, 2013

चैट विंडो

अधूरे सपनों के साथ जीना उसकी आदत हो चुकी थी। उसे इस बात पर यकीन हो चला था कि अब उसे इसी तरह अधूरे से ख्वाब लेकर जीना है। कुछ और हसीन सपने अंजाने शहर में टूटने के बाद वो वापस अपने शहर आ गई थी। यहां दफ्तर में खोई अनमनी सी बैठी रहती थी। एक दिन चैट पर कुछ दूरी पर बैठने वाले एक लड़के का मैसेज आया। उसे बड़ा अजीब लगा। वैसे भी वो उसे कुछ खास पसंद नहीं करती थी। उसे वो बहुत घमंडी लगता था। खैर शिष्टता की खातिर उसने भी जवाब दे दिया।
इस तरह रोज़ चैट होने लगी। यही ऑफिस की बातें और हाल चाल पूछना। धीरे-धीरे चैट का रिश्ता गहराता चला गया। ऑफिस की कोई भी परेशानी हो, वे एक-दूसरे को चैट पर जरूर बताते। काम एक ओर चलता रहता और चैट भी साथ ही साथ चलती रहती। लेकिन दो ही महीने में लड़की को ऑफिस में बहुत तंग किया जाने लगा था। आखिर एक दिन उसने जिद में आकर नौकरी छोड़ दी। दूसरी नौकरी भी आसानी से मिल गई थी, जहां पैसा और पोजीशन पहली नौकरी से ज्यादा अच्छा था। कमी थी तो बस, अपने उस दोस्त की जो चैट के जरिए बहुत पास आ गया था।
नौकरी छोडऩे के बाद वे पहली बार कॉफी पर मिले। बड़ा ही अजीब माहौल था। चैट पर हर छोटी बात शेयर करने वालों के पास आज बात करने को जैसे कुछ था ही नहीं। 10 मिनट की मुलाकात में बस वो इतना ही कह पाई, क्रआई विल मिस माय चैट फ्रेंड द मोस्ट।ञ्ज लड़का सिर्फ मुस्कराता ही रहा।
दूसरे दफ्तर का माहौल काफी अच्छा था। वो वहां कई लोगों को पहले से जानती थी। एक बात की खुशी थी कि ऑफिस बदलने के बाद अब चैट विंडो सिर्फ शाम को ही नहीं, बल्कि दिन में भी खुली रहती थी। यही नहीं, अब कई बार वे दोपहर का खाना साथ खाते थे। कई बार शाम को कॉफी पीने चले जाते थे। ये उनके रुटीन में इसलिए भी शामिल हो चुका था, क्योंकि उसे ये पता चल गया था कि वो भी अब जल्दी ही शहर छोड़कर जाने वाला है। उसे भी बड़े शहर में अच्छी नौकरी मिल गई है।
उदास होकर भी वो उदास नहीं हो सकती थी। ये तो होना ही था, उसने अपने दिल को समझा लिया था। वैसे भी उनके बीच सिर्फ दोस्ती ही तो है। लेकिन जैसे-जैसे उसके जाने का वक्त नजदीक आता जा रहा था, उसका दिल बैठा जा रहा था। क्या एक बार फिर वही होगा जिसका उसे डर था? जब उसके जाने में महज दो दिन बाकी बचे तो उसने उसे एक खत लिखकर मेल कर दिया। उस मेल का पढ़कर उसका सिर भी चकरा गया। आखिर उसके दिल में भी तो यही जज्बात थे, लेकिन जिंदगी के उस मोड़ पर उन्हें स्वीकारना उसके लिए मुमकिन नहीं था।
दो दिन बाद जब वो उसे स्टेशन छोडऩे गई तो बड़ी मुश्किल से अपने आंसुओं को काबू कर रखा था। जैसे ही उसकी ट्रेन चली, लड़की की आंखों से आंसू बह निकले और न जाने कब तक बहते ही रहे। उसे पता था कि जिंदगी का एक चैप्टर खत्म हो रहा है।
नई नौकरी के साथ बस एक ही पुरानी चीज जुड़ी हुई थी, वह थी चैट विंडो। वे आज भी इसी खिड़की के जरिए एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। रोज की छोटी-बड़ी बातें शेयर करना अभी भी उनकी दिनचर्या में शामिल था। लेकिन लड़के को अहसास हो चला था कि इस रिश्ते को आगे बढ़ाना मुमकिन नहीं है। बस इसीलिए धीरे-धीरे उसने ये खिड़की बंद करनी शुरू कर दी। ये लड़की के लिए बड़ा ही तकलीफदेह था। एक वही खिड़की तो थी, जहां वो कुछ पल सुकून के की तलाश में पहुंचती थी। पर उसे लगा कि वो अपनी नई जिम्मेदारियों और जिंदगी में मसरूफ होता जा रहा है।
कुछ साल उम्मीदों के सहारे काटने के बाद एक दिन आखिर उसने उसे बताया कि उसे प्यार हो गया है। वह टूट गई, पूरी तरह।
उसका ये आखिरी सपना भी अधूरा ही रह गया था, लेकिन उसने खुद को किसी तरह संभाला और जिंदगी में आगे बढऩे का फैसला लिया। उसे उन यादों और उम्मीदों से बाहर निकलने के लिए आगे बढऩा था। उसने तय किया कि वह शादी कर लेगी। तीन महीने के अंदर ही जब उसने उसे बताया कि वो शादी कर रही है तो उसके पैरों तले जमीन निकल गई। उसे पता था कि एक दिन ऐसा होगा, लेकिन जब ऐसा होगा तो उसे ऐसा महसूस होगा, ये उसे पता नहीं था।
बस, वो जिंदगी में ये सोचकर आगे बढ़ गई कि उसे उससे प्यार नहीं है और वो ये सोचकर खामोश रह गया कि वो अपनी नई जिंदगी में खुश है......

Friday, November 29, 2013

थैंक्स गिविंग

मेरा दोस्त है शिशिर। अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया शहर में रहता है।  कल उसका दोपहर को फ़ोन आया।  शुरू में तो थोड़ी हैरानी हुई।  दरअसल उस वक़्त वहाँ आधी रात होती है।  सोचा कहीं किसी परेशानी में तो नहीं फंस गया? मन में घुमड़ती भावनाओं को काबू करते हुए फ़ोन उठाया।  "हेलो, क्या कर रही हो ?" उधर से उसकी बहुत ही नॉर्मल आवाज़ आई।
"ऑफिस में हूँ।  तुमने इस वक़्त कैसे कॉल किया ?" मैंने पूछ ही लिया। "अरे यार क्या बताऊँ ? तुम्हे तो पता ही है कि मम्मी-पापा आये हुए हैं।  और आज यहाँ थैंक्स गिविंग की रात को पूरी रात शौपिंग होती है।  अब शौपिंग तो सबने कर ली, मई बिल काउंटर कि लाइन में लगा हुआ हूँ। "
यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि शिशिर की पत्नी थोड़ी सी उग्रवादी किस्म की है।  मम्मी-पापा के आने के नाम से उनके यहाँ बहुत तांडव हुआ था।  खैर, मैंने पुछा, " शौपिंग कि वजह से कोई कलह तो नहीं हुआ?"
"यार तुमसे क्या छिपाना।" वह ठंडी आवाज़ में बोला।  "शौपिंग करते वक़्त मम्मी सभी के लिए कुछ न कुछ लेना चाहती थीं।  इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन वो पहले भी दीदी-जीजाजी और भैया-भाभी के लिए बहुत कुछ ले चुकी हैं। यहाँ आकर जब वो फिर से जीजाजी के लिए जैकेट वगैरह लेने लगीं तो वो (उसकी पत्नी ) चिढ गई।  मम्मी को तो कुछ नहीं बोला, लेकिन मुझसे बोली की इतना खर्च करने कि क्या ज़रूरत है?"
उसकी बात मुझे न जाने क्यों इस बार गलत नहीं लगी।  आखिर गृहस्थी उसी को चलानी होती है।  बेपरवाह खर्च करने से दिक्कत उसी को होगी।  "तुम मम्मी को क्यों नहीं समझाते?" मैंने शिशिर से कहा।  "अरे यार वो भी तो कम नहीं हैं।  ज़रा सा बोला था तो कहने लगीं कि पैसे हमसे ले लेना।  मई तो बीच में फंसकर रेह गया हूँ।
शिशिर की बात से मुझे अंदाज़ा हुआ कि पेरेंट्स भी कभी कभी बच्चों से कम नहीं होते।  बजाय बेटे की परेशानी समझने के वे बुरा मान जाते हैं।  बेचारा लड़का बीवी और माँ के बीच फंस जाता है।  ऐसा नहीं है कि शशिर को अपने दीदी-जीजाजी से प्यार नहीं है।  उसने बताया की जीजाजी के लिए पहले ही दो जैकेट्स और काफी सामान ख़रीदा जा चुका  है।  यही नहीं वो मम्मी-पापा के आने से पहले ही दीदी और भैया को आई फ़ोन भिजवा चूका है।  और इस बार भाभी ने भी इसी फ़ोन कि फरमाइश भेजी है।
मैं सोच में पड़ गई कि आखिर इसमें उसकी क्या गलती है।  बाहर काम करने का मतलब ये नहीं होता न कि इंसान के पास पैसों कि झड़ी लग जाती है।  उसका परिवार है जिनपर खर्च होता है।  और मम्मी-पापा के ट्रिप पर उसके पहले ही काफी पैसे खर्च हो चुके हैं।  ऐसे में सभी को उसके बारे में भी तो थोडा सोचना चाहिए।  लेकिन शायद बेटे होने के नाते उसे इसी तरह खर्च करते हुए अपने माता पिता को थैंक्स कहना होगा।

खैर यहाँ बैठे तो मई उसकी क्या ही मदद कर पाऊँगी ? लेकिन अपनी डायरी से तो ये बातें कही ही जा सकती हैं।