Sunday, December 15, 2013

बेलगाम ख्वाहिशें

छोटी छोटी ख्वाहिशें कब बड़ी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता.... 
पहले दोस्तों के साथ गन्ने का रस पीने जाना लक्ज़री हुआ करती थी, अब सीसीडी, पिज़्ज़ा हट और डोमिनोज़ जाकर भी मन नहीं भरता ... 
पहले हॉल में पिक्चर देखने को मिलती थी तो खुश हो जाते थे, अब मल्टीप्लेक्स के अलावा कहीं जाने का मन नहीं करता... 
पहले साल में सिर्फ दुर्गा पूजा पर नए कपडे मिलते थे, अब तो दो बार पहनने के बाद ही नया कपडा पुराना लगने लगता है...
इन ख्वाहिशों पर कोई लगाम नहीं है और बेलगाम ख्वाहिशें पूरी हो भी जाएं तो भी दिल में सुकून नहीं है। दरअसल अब मन किसी चीज़ से नहीं भरता और सब चीज़ों से भर भी गया है। ये दौर बड़ा अजीब है, हमें सब चाहिए और ये भी नहीं पता कि आखिर तलाश किस चीज़ की है?
ये अंधी तलाश कई लोगों  के लिए लक्ष्य बन जाती है तो कुछ लोगों को अँधेरे कि गर्त में ले जाती है।  बचपन के साथ जो चीज़ खो जाती है उनमे सुकून, मस्तमौलापन, बेफिक्री और असली ख़ुशी भी शामिल होती है.… 

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